कोई यूं ही, महान नहीं बन जाता और महान बनने या कहलाने की क्या डेफिनेशन है ? क्रिकेट का पूरा करियर या सिर्फ एक मैच, जो आपको महान बना देता है। कभी-कभी हमें किसी खिलाड़ी का पूरा करियर याद नहीं रहता, लेकिन उसका एक मैच हमें ही नहीं, बल्कि उसकी गूँज सदियों तक सुनाई देती है।
आने वाली पीढ़ियां भी उस धुँआधार पारी को समय-समय पर याद करती है कि ख़ास हमने ये मैच देखा होता। जैसे मेरे मन में है कि ख़ास ये पारी कल देखी होती तो अलग ही मजा होता।
महानता, किसी सरहद की भी गुलाम नहीं होती। तभी हम आज बात कर रहे हैं कल खेली गई उस क्रिकेट पारी की जिसने अफ़सोस के सिवाय कुछ नहीं छोड़ा। हमारे से कई दूर बसा ऑस्ट्रेलिया, जहां उस के लोग उम्मीद हार कर सो गए होंगे कि अब हम क्या ही जीतेंगे, सुबह उठेंगे और नौकरी जाएंगे। लेकिन सुबह उठे होंगे तो उन्हें अफ़सोस हुआ होगा कि ये हमने क्या खो दिया।
मैक्स वेल, ग्लेन मैक्सवेल की वो महान पारी, जिसके लिए कहते हैं कि एक मरा हुआ इंसान भी क्या कमाल कर जाता है। एक मरा हुआ इंसान यानी हमारी मौत की उस डेफिनेशन के हिसाब से नहीं, बल्कि उम्मीद के मामले में एक मरे हुए इंसान की बात, यहां हो रही है। किसी ने सोचा नहीं होगा कि 91 रन पर 7 विकेट जाने के बाद अब मैक्सवेल वो कमाल की पारी खेलेंगे जिसके लिए कहा जाएगा कि ये महानता का वो पल है जिसके हम गवाह बने या मेरी तरह नहीं देखने वाले इस महानता के गवाह नहीं बन पाएं।
हमारा इतिहास महानता के अध्याय से भरा पड़ा है। लेकिन मैक्सवेल का ये अध्याय ऐसा है जहां शरीर टूट पड़ा था। टांग और घुटने दोनों जवाब दे चुके थे। बस बचा था तो हाथ और दिमाग, जीने और खेलने की चाह। चाहते तो वो मैदान से बाहर जा सकते थे लेकिन नहीं। उन्होंने कहा कि सांस रुक जाए पर हिम्मत नहीं रुकनी चाहिए। मैच भले ही हार जाए पर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
और आखिर में यहीं हुआ कि मैक्सवेल की हिम्मत ना सिर्फ जीती, बल्कि दुनिया के हर इंसान को संदेश दे दिया कि चाहे आपको कोई घुटनों के बल ही क्यों ना टिका दें लेकिन आपको अपनी आखिरी सांस तक हिम्मत नहीं हारनी है।
मैक्सवेल की ये पारी उनकी जीत के नाम नहीं, बल्कि उनकी उस महानता के नाम थी। जिसने बताया कि टूटे हुए शरीर से भी अपना हर सपना पूरा किया जा सकता है और अपनी काबिलियत को उच्चतम स्तर पर भी ले जा सकते हैं।