राजस्थान विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग और पंचवर्षीय विधि महाविद्यालय द्वारा आयोजित तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी "भारतीय ज्ञान परम्परा में विधि एवं न्याय की अवधारणा" का समापन समारोह समारोहपूर्वक संपन्न हुआ। इस संगोष्ठी में विद्वानों ने भारतीय संस्कृति, परंपरा, और विधि के व्यापक पहलुओं पर विचार विमर्श किया। संगोष्ठी के दौरान 25 सत्रों में 300 से अधिक शोध पत्रों का वाचन किया गया।
समारोह के मुख्य अतिथि, राजस्थान भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र, डॉ. सतीश पूनियाँ ने अपने संबोधन में भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परम्परा आज पूरे विश्व में अपनी पहचान बना रही है। संस्कृत, जो सभी शास्त्रों की जननी है, आज वैश्विक मान्यता प्राप्त कर रही है। उन्होंने भारतीय न्याय प्रणाली की अद्वितीयता का उल्लेख करते हुए भारतीय न्याय संहिता 2023 के महत्व को रेखांकित किया और इसे देश की विधिक व्यवस्था के लिए मील का पत्थर बताया। डॉ. पूनियाँ ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति में निहित मूल्य और सिद्धांत केवल भारत तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए प्रासंगिक हैं। उन्होंने युवाओं से आह्वान किया कि वे इन मूल्यों को आत्मसात करें और भारतीय ज्ञान परम्परा को आगे बढ़ाएं।
दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रख्यात शिक्षाविद्, डॉ. सीमा सिंह ने अपने व्याख्यान में धर्म और पर्यावरण संरक्षण के बीच के अटूट संबंध पर बल दिया। उन्होंने कहा कि "भारतीय परम्परा में धर्म केवल धार्मिक आस्थाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण भी निहित है। हमारी संस्कृति हमें सिखाती है कि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करें और इसका आदर करें।" डॉ. सिंह ने आगे कहा, "आज की तेज़ी से बदलती दुनिया में हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे कदम पर्यावरण को हानि न पहुँचाएं। धर्म और पर्यावरण का संरक्षण हमारी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है।" उन्होंने युवाओं से आग्रह किया कि वे अपनी जड़ों की ओर लौटें और भारतीय संस्कृति में निहित पर्यावरण संरक्षण के मूल्यों को अपनाएं। न्यू जर्सी, अमेरिका से आए वेद विद्वान और चिकित्साशास्त्री, डॉ. रमेश गुप्ता ने भारतीय सभ्यता और संस्कृत साहित्य की महत्ता को वर्तमान संदर्भ में व्याख्यायित किया। उन्होंने कहा कि वैदिक सभ्यता ने मानवता को जीवन जीने के ऐसे आदर्श दिए, जो आज भी प्रासंगिक हैं। भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद के सदस्य सचिव और प्रख्यात विचारक, प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र ने कहा कि विधि और संविधान का अभाव अराजकता और असंतुलन को जन्म देता है। उन्होंने कहा कि यह समाज के प्रत्येक वर्ग का कर्तव्य है कि वह संविधान और न्याय प्रणाली का सम्मान करे। साथ ही, उन्होंने भारतीय न्याय व्यवस्था में प्राचीन दंड प्रणाली के उन तत्वों की पुनः खोज पर बल दिया, जो आज लुप्त हो चुके हैं।
समारोह के विशिष्ट अतिथि, जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रो. रामसेवक दुबे ने वेदों को "ब्रह्माण्ड का संविधान" बताते हुए कहा कि विधि और न्याय का मूल उद्देश्य सत्य और धर्म की स्थापना है। उन्होंने भावी अधिवक्ताओं को प्रेरित किया कि वे अपने तर्क और विधिक ज्ञान का उपयोग सत्य और न्याय के पक्ष में करें। समारोह की अध्यक्षता करते हुए राजस्थान विश्वविद्यालय की कुलपति, प्रो. अल्पना कटेजा ने संस्कृत की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि यह भाषा केवल भारत ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व की धरोहर है। उन्होंने विदेशी विद्वानों के उद्धरण साझा करते हुए कहा कि संस्कृत और भारतीय परंपरा ने विश्व सभ्यता को आकार दिया है। संगोष्ठी के संयोजक, प्रो. राजेश कुमार ने बताया कि तीन दिनों में 500 से अधिक विद्वानों का सम्मान किया गया। उन्होंने यह भी घोषणा की कि शीघ्र ही भारतीय ज्ञान परम्परा पर एक और संगोष्ठी आयोजित की जाएगी। कार्यक्रम का संचालन डॉ. कौशलेन्द्र सिंह ने किया और आयोजन सचिव डॉ. अखिल कुमार ने धन्यवाद ज्ञापित किया। यह संगोष्ठी भारतीय ज्ञान परम्परा और संस्कृति को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने और पर्यावरण संरक्षण, धर्म, विधि एवं न्याय के आधुनिक संदर्भ में उनके महत्व को रेखांकित करने का एक महत्वपूर्ण मंच सिद्ध हुई।|